अयोध्या में राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के मौके पर पवित्र सोमनाथ मंदिर के पुनुरुद्धार कार्यक्रम को बिना किसी कारण के याद नहीं किया जा रहा है. असल में इसकी बड़ी वजह कांग्रेस बनी है. राम मंदिर कार्यक्रम के आमंत्रण को ठुकराकर उसने सोमनाथ मंदिर को लेकर पंडित नेहरू के विरोध को याद करने का मंदिर समर्थकों को मौका दे दिया है. राम मंदिर से हिंदू समाज की अगाध भावनाएं और आस्था जुड़ी हुई है. पांच सदियों के अंतराल पर हर्ष के इस दुर्लभ अवसर पर हिंदू समाज दलीय -वर्गीय सीमाओं को तोड़ सिर्फ राम मय है. ऐसे अवसर पर विपरीत राह चलती कांग्रेस ने इतिहास में दर्ज सोमनाथ मंदिर विवाद के बहाने भाजपा को यह आरोप लगाने का अवसर दे दिया कि नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस ने हिंदू समाज की भावनाओं को हमेशा आहत किया है.
मंदिर पुनर्निर्माण का पटेल का संकल्प
आजादी नजदीक थी. सरदार पटेल देसी रियासतों के एकीकरण के अभियान पर थे. उन्होंने देसी राजाओं के सामने शर्त रखी थी कि 15 अगस्त 1947 के पहले वे अपनी रियासत के भारत में विलय की रजामंदी दे दें. लेकिन तीन रियासतों हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ ने समय सीमा के भीतर अपनी मंजूरी नहीं दी थी. जूनागढ़ का भारत में विलय 8 नवम्बर 1947 को मुमकिन हुआ. सोमनाथ का पवित्र मंदिर इसी रियासत के भू क्षेत्र में भग्नावशेषों की दशा में था. 13 नवंबर को जूनागढ़ में एक बड़ी सभा को सम्बोधित करने के बाद सरदार सोमनाथ मन्दिर दर्शन के लिए गए. ध्वस्त मंदिर ने सरदार को विचलित कर दिया.
मंदिर की समृद्धि- ऐश्वर्य पर मुस्लिम आक्रांताओं की हमेशा कुदृष्टि रही. महमूद गजनवी का 1026 में इस पर पहला हमला हुआ. कुल 17 बार यह मन्दिर लूटा-तोड़ा गया. मंदिर के प्रति हिंदुओं की आस्था ऐसी कि हर हमले के बाद वे फिर से इसे बना लेते थे. आखिरी बार 1706 में औरंगजेब ने मन्दिर पूरी तौर पर ध्वस्त करने का मुगल सूबेदार मोहम्मद आजम को हुक्म दिया था. लेकिन भक्तों ने भग्नावशेषों के बीच भी आस्था की अलख जगाये रखी थी. लगभग ढाई सौ साल के अंतराल पर यह सरदार पटेल थे जिन्होंने मन्दिर के पुनरुद्धार का संकल्प लिया. फौरन ही जाम साहब ने एक लाख रुपये का दान दिया. सामलदास गांधी की अंतरिम सरकार की ओर से 51 हजार देने की घोषणा की गई. पटेल के सहयोगी वी. पी . मेनन ने लिखा कि इसमें कुछ भी पूर्वनियोजित नहीं था. (इंटीग्रेशन ऑफ द इण्डियन स्टेटस-135)
गांधी ने कहा सरकारी नहीं जनसहयोग से हो निर्माण
मन्दिर पुनरुद्धार के लिए दृढ़प्रतिज्ञ सरदार पटेल ने योजना के लिए नेहरू मन्त्रिमण्डल की मंजूरी हासिल कर ली थी. हालांकि मौलाना आजाद का सुझाव था कि मंदिर स्थल को पुरातत्व विभाग के संरक्षण में सुपुर्द कर दिया जाए. लेकिन पटेल पुनर्निर्माण से कम पर राजी नहीं थे. ये निर्माण भी सरकारी खर्च पर होना था. नेहरू ने तब इसका विरोध किया हो , इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता. इस योजना में पटेल और लोक निर्माण – पुनर्वास मंत्री एन.वी. गाडगिल की महात्मा गांधी से भेंट के बाद परस्पर सहमति से एक बड़ा बदलाव हुआ.
महात्मा गांधी ने मंदिर के पुनर्निर्माण को अपनी सहमति – समर्थन दिया लेकिन उनका सुझाव था कि निर्माण का खर्च सरकार से नहीं बल्कि जन सहयोग से जुटाया जाए. पटेल और उनके सहयोगी इसके लिए तुरंत राजी हो गए. इस मुलाकात में ऐसी कोई बात नहीं हुई थी कि कैबिनेट के मंत्री या सरकार से जुड़े लोग मंदिर निर्माण में हिस्सेदारी न करें. गांधी का सुझाव सिर्फ सरकार से खर्च न लेने तक सीमित था. सरदार पटेल ने अपने एक भरोसेमंद साथी खाद्य एवं कृषि मन्त्री कन्हैय्या लाल माणिकलाल मुंशी को मन्दिर के पुनरुद्धार-निर्माण हेतु गठित समिति का अध्यक्ष बनाया.
गांधी -पटेल के बाद निर्माण की राह हुई मुश्किल
लेकिन आगे यह कार्य इतना आसान नहीं रहा. महात्मा गांधी का 30 जनवरी 1948 और सरदार पटेल का 15 दिसम्बर 1950 को निधन हो गया. मंदिर की योजना पटेल की थी और वही एक मात्र व्यक्ति थे जिनकी अनदेखी पंडित नेहरू के लिए आसान नहीं थी. वामपंथी खेमा शुरू से मन्दिर निर्माण के विरोध में था और नेहरु अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को लेकर बहुत सचेत थे. उन्हें लगता था कि मन्दिर निर्माण में उनके कैबिनेट सदस्यों की भागीदारी उनकी और सरकार की धर्मनिरपेक्ष छवि के लिए नुकसानदेह है. सरदार पटेल के बाद मंदिर निर्माण की जिम्मेदारी संभाल रहे के. एम. मुन्शी अकेले पड़ चुके थे. मंत्रिमंडल की एक बैठक के बाद नेहरु ने मुन्शी से कहा,” मैं नहीं पसंद करता कि आप सोमनाथ मन्दिर के पुनरुद्धार की कोशिश करें. यह हिन्दू नवजागरणवाद है.” (सेक्युलर पॉलटिक्स कम्युनल एजेंडा-ए हिस्ट्री ऑफ पॉलटिक्स इन इण्डिया -मक्खनलाल-150-54)
नेहरू ने मुंशी को ही नहीं राजेंद्र प्रसाद को भी रोका
मुन्शी ने नेहरू के इस एतराज को नहीं माना. इससे भी आगे बढ़कर 24 अप्रेल 1951 को मुंशी ने अपने एक पत्र के जरिये पण्डित नेहरु को बता दिया कि वे इस योजना से पीछे हटने वाले नहीं हैं. विपक्षी बेशक मंदिर पुनर्निर्माण के विरोध के लिए नेहरू की आलोचना कर सकते हैं लेकिन प्रधानमंत्री की राय के खुले विरोध के बाद भी नेहरू ने मुंशी को मंत्री बनाए रखने का बड़प्पन दिखाया. पर यह विवाद यहीं नहीं थमा. आगे यह प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बीच टकराव का कारण बना. मुंशी ने मंदिर के पुनर्निर्माण पश्चात उद्घाटन – प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की उपस्थिति की सहमति प्राप्त कर ली.
अपनी इच्छा के विरुद्ध मंदिर का पुनर्निर्माण और अब राष्ट्रपति की उस कार्यक्रम में हिस्सेदारी की खबर ने पंडित नेहरू को खिन्न किया. 2 मार्च 1951 को नेहरु ने डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को लिखा,”आप सोमनाथ मन्दिर के उदघाट्न समारोह में हिस्सा न लें. दुर्भाग्यजनक रुप से इसके कई मतलब निकाले जायेंगे. व्यक्तिगत रुप से मैं सोचता हूं कि सोमनाथ में विशाल मन्दिर बनाने पर जोर देने का यह उचित समय नही है. इसे धीरे-धीरे किया जा सकता था. बाद में ज्यादा प्रभावपूर्ण ढंग से किया जा सकता था. फिर भी मैं सोचता हूं कि बेहतर यही होगा कि आप उस समारोह की अध्यक्षता न करें.”
नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को लिखा- दूर रहें ऐसे कार्यक्रमों से
डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने पंडित नेहरू के सुझाव की अनदेखी की. इस कार्यक्रम में राष्ट्रपति की भागीदारी तय दिखने पर नेहरू ने 2 मई 1951 को राज्यों के मुख्यमंत्रियों को संबोधित एक पत्र में लिखा कि ये सरकारी कार्यक्रम नहीं है. पत्र में इस या इस जैसे कार्यक्रमों से दूरी बनाने की भी उन्होंने सलाह दी थी. धर्मनिरपेक्षता को संविधान का हिस्सा बताया था और बल दिया था कि सरकार इसके लिए प्रतिबद्ध है.
नेहरु के विरोध के बाद भी राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद सोमनाथ मन्दिर के कार्यक्रम में 11 मई 1951 को सम्मिलित हुए. वहां उन्होंने कहा,” मेरा विश्वास है कि सोमनाथ मन्दिर का पुनरुद्धार उस दिन पूर्ण होगा, जब इस आधारशिला पर न केवल एक भव्य मूर्ति खड़ी होगी, बल्कि उसके साथ ही भारत की वास्तविक समृद्धि का महल भी खड़ा होगा. वह समृद्धि जिसका सोमनाथ का प्राचीन मन्दिर प्रतीक रहा है , अपने ध्वंसावशेषों से पुनः-पुनः खड़ा होने वाला यह मन्दिर पुकार-पुकार कर दुनिया से कह रहा है कि जिसके प्रति लोगों के हृदय में अगाध श्रद्धा है, उसे दुनिया की कोई शक्ति नष्ट नही कर सकती. आज जो कुछ हम कर रहे हैं, वह इतिहास के परिमार्जन के लिए नहीं है. हमारा एक मात्र उद्देश्य अपने परम्परागत मूल्यों, आदर्शों और श्रद्धा के प्रति अपने लगाव को एक बार फिर दोहराना है, जिनपर आदिकाल से ही हमारे धर्म और धार्मिक विश्वास की इमारत खड़ी है.”
राष्ट्रपति के कार्यक्रम कवरेज की मनाही
डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का भाषण उनकी शख्सियत और पद की गरिमा के अनुरुप था. उन्होंने कहा था,”धर्म के महान तत्वों को समझने की कोशिश करें. सत्य और ईश्वर तक पहुंचने के कई रास्ते हैं. जैसे सभी नदियां विशाल सागर में मिल जाती हैं, उसी तरह अलग-अलग धर्म ईश्वर तक पहुंचने में लोगों की मदद करते हैं. यद्यपि मैं एक हिन्दू हूं लेकिन मैं सारे धर्मों का आदर करता हूं. मैं कई अवसरों पर चर्च, मस्जिद, गुरुद्वारा और दरगाह जाता रहता हूं.”
नेहरु की सोच अलग थी. उनकी राय में जनसेवकों को कभी भी आस्था या पूजा स्थलों से खुद को नही जोड़ना चाहिए. राजेन्द्र प्रसाद का कहना था,”मेरी अपने धर्म में आस्था है. मैं खुद को इससे अलग नही कर सकता.” नाराज नेहरु ने सूचना-प्रसारण मंत्रालय को निर्देश जारी करके राष्ट्रपति के मन्दिर कार्यक्रम के प्रचार-प्रसार पर रोक लगा दी थी. (इण्डिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरु एण्ड ऑफ्टर- 354)
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